कुछ समय से सोशल मीडिया पर पीके फिल्म का विरोध बढ रहा था और अब उसकी उग्रता भी देखी, बहुत पहले आये चाणक्य सीरियल में एक दृश्य था, जिसमे आचार्य चाणक्य बौद्धों के बढते प्रभाव से व्यथित हिंदू धर्म के आचार्यों को संबोधित करते हैं. वह विडियो खंड मैं यहां दे रहा हूं.
यह
तो निश्चित है कि सांस्कृतिक
हमला भारतीयता पर हो रहा है,
और
यह भी निश्चित है कि हमारे
भारतीय लोग ही उसमे सहायता
कर रहे हैं,
लेकिन
उसका विरोध की जो प्रक्रिया
है उस से अपेक्षित परिणाम नही
मिल रहा है और ना ही वह मिल
सकेगा। प्रतिकार जिस प्रकार
हो रहा है,
उससे
अपनी बात उठाई तो जा सकती है
लेकिन मनवाई नही जा सकती और
ना ही उस से कोई बदलाव लाया जा
सकता है,
उस
से भी गंभीर स्थिति यह है कि
ऐसे विरोध से हो रहे सांस्कृतिक
हमले को और अधिक समर्थन मिलेगा।
हमारे विरोध मे तीव्रता तो
है लेकिन वह ठीक दिशा में नही
है। उस से हम अपने दीर्घ कालीन
लक्ष्यों से भटक जायेंगे और
सांस्कृतिक प्रदूषण बढता
रहेगा।
मैने पीके फिल्म अभी तक नही देखी, उसे देखने का कोई योग्य कारण मेरे पास नही था और ऐसा भी नही कि मुझे फिल्में पसंद नही। पीके के विरोध का कारण जो भी रहा हो लेकिन उसकी उग्रता और विरोध का तरीका मुझे स्वीकार्य नही हो पा रहा। ऐसा लगता है कि हमारी अक्षमता, अज्ञानता के कारण कुंठा और हताशा उत्पन्न हुई, और उसके प्रभाव के कारण हमने विरोध आरंभ कर दिया। आखिर जानते हुए भी हम एक लंबी रेखा क्यों नही खींच पाते? क्या यह हमारी अक्षमता नही है? आखिर क्यों हम दूसरे की खींची हुई रेखा को छोटी करने या उसको मिटा डालने का प्रयास करते हैं? क्या यह हमारी हताशा नही है? क्या यह हमारी कुंठा के कारण तो नही है? आखिर क्यों हमें लगता है कि किसी के द्वारा फिल्म में दर्शाये गये चित्र हमारे हिंदू समाज के ऋषि मुनियों साधुओं द्वारा किये गये महान कार्यों को मटियामेट कर देंगे? आखिर क्यों हमारा आचरण समाज को यह बताने मे असफल रहता है कि यह फिल्म साधुओं का गलत चित्रण करती है? और ऐसा भी हम क्यों सोचने लगे हैं कि लोग जो इस फिल्म को देखेंगे तो वह हमारे साधु समाज से द्वेष करना आरंभ कर देंगे? क्या हमारा विश्वास डगमगाया? क्या विरोध का यह तरीका साधु समाज के प्रति लोगों मे सम्मान को जागृत कर देगा? चालीस लोग इकट्ठा हो कर चार सौ लोगों को फिल्म देखने से रोक देते हैं, और अपेक्षा रखते हैं कि वह चार सौ लोग हिंदू धर्म के समर्थक हो जायेंगे, क्या ऐसा संभव है? क्या विरोध करने से धर्म की उन्नति होती है या धर्म का आचरण करने से धर्म की उन्नति होगी? हमारी संस्कृति हमारे आचरण मे होगी तो कौन परास्त कर सकेगा?
यह हमारी ही अक्षमता है कि हम अपने ही साधु समाज का चित्रण सही प्रकार से नही कर पा रहे हैं, फिर वो चाहे किसी रामपाल या निर्मल बाबा के ढोंग के बारे मे समाज को सावधान करना हो, या फिर किसी बाबा रामदेव जी, साध्वी ऋतंभरा जी, श्री श्री रवि शंकर जी, गंगोत्री मंदिर के पुरोहितों, विभिन्न संतों द्वारा चलाये जा रहे आरोग्य संस्थान, शिक्षण संस्थान, सामाजिक समरसता के कार्यक्रम के बारे मे समाज को जानकारी देनी हो। दोनो ही कार्यों मे हम अक्षम रहे। हम ना तो रामपाल के बारे मे समाज को जागृत कर सके, ना ही हम संतों द्वारा चलाये जा रहे प्रकल्पों के बारे मे समाज को बता सके। और ऐसी स्थिति में जब कोई पीके जैसी फिल्म आती है तो अपने संतों द्वारा किये गये कार्यों को बता कर तार्किक रूप से विरोध करने के स्थान पर हम उग्र हो जाते हैं। हताशा में अपनी बडी रेखा खींचने की चिंता को छोड़ कर अपनी सारी ऊर्जा छोटी रेखाओं को मिटाने मे लगाने लगते हैं, और जब कोई दूसरा अपने आर्थिक कारणों से ऐसा करता है तो हम उस से द्वेष करते हैं उससे घॄणा करते हैं। आखिर क्यों हमारा समाज उन सब बातों से अन्जान रहता है जो विभिन्न धार्मिक गुरुओं और संस्थाओं द्वारा समाज कल्याण के लिये किये जा रहे हैं। हम उनका प्रचार करने के स्थान पर अपने विरोध का प्रचार कर रहे हैं, और अपेक्षा कर रहे हैं कि लोग हमारे साथ आयें और सत्ता इस को प्रतिबंधित कर दे। क्या हम हिंदुत्व को समझ सके हैं? क्या हिंदुत्व में दूसरे को अपने विचार प्रकट करने की मनाही है? हमने तो चार्वाक को भी ऋषि कहा जबकि यदि उसका प्रत्यक्षीकरण कोई अपने आचरण मे उतारे तो हम उसको पश्चिमी आचरण मान कर शायद उसका भी विरोध करें।
सिनेमा अपने आर्थिक कारणों से चलता है, और उसके चलने का कारण लोगों का उसे देखने जाना है। यह भी निश्चित है कि उनको जाने से रोकना ठीक नही है, लेकिन क्या हम ऐसी जागृति नही ला सकते कि किस विषय पर फिल्म बनाना निदेशकों के लिये लाभप्रद हो सकता है? कुछ समय पूर्व चार साहिबजादे फिल्म बनी, क्या उस फिल्म ने इतना अधिक व्यापार किया? और यदि नही किया तो क्यों नही कर सकी? यदि इस प्रश्न का उत्तर हम ढूंढने मे सफल हुए तो हमें अपने विरोध करने के तरीकों का रास्ता भी मिल जायेगा। फिल्म व्यापार करने के उद्देश्य से बनती है, बन रही हैं, और इस लाभोन्माद के लालच में हमारे निदेशकों, अभिनेताओं को प्रयोग किया जाता है और वो होते हैं।
मैने यह नही कहा कि पीके फिल्म ठीक है, लेकिन दूरगामी प्रभावों की चिंता किये बिना कोई विरोध करना, लक्ष्यों की ओर जाने से भटकायेगा, और लक्ष्य प्राप्त करने के समय को बढा देगा। यदि चार साहिबजादे फिल्म चलती और ४०० करोड़ का व्यापार कर देती तो निश्चित रूप से ऐसी फिल्में बनने की बाढ लग जाती। हमको इस व्यवस्था को समझना होगा और उसके अनुसार ही अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। आने वाले समय में बेबी, हवाईजादे, शंभा जी फिल्म आ रही हैं, यदि यह फिल्में सफलतापूर्वक ४०० करोड़ का व्यापार करती हैं, तो यह निश्चित है कि सांस्कृतिक विरासत मे आयी कमियों की आड़ ले कर आस्थाओं का मजाक उड़ाने वाले फिल्म बनना भी बंद हो जायेंगी किंतु शर्त मात्र एक है कि वो फिल्में जो भारतीयता इतिहास, संस्कृति के उज्जवल पक्षों को दिखाये, उनका व्यापार सबसे अधिक होना चाहिये और इन सबमें हम यह ना भूल जायें कि रामपाल, निर्मल बाबा जैसों का विरोध करना भी हमारा ही कार्य है, यह किसी बाहर वाले के ऊपर नही छोड़ा जा सकता।
मैने पीके फिल्म अभी तक नही देखी, उसे देखने का कोई योग्य कारण मेरे पास नही था और ऐसा भी नही कि मुझे फिल्में पसंद नही। पीके के विरोध का कारण जो भी रहा हो लेकिन उसकी उग्रता और विरोध का तरीका मुझे स्वीकार्य नही हो पा रहा। ऐसा लगता है कि हमारी अक्षमता, अज्ञानता के कारण कुंठा और हताशा उत्पन्न हुई, और उसके प्रभाव के कारण हमने विरोध आरंभ कर दिया। आखिर जानते हुए भी हम एक लंबी रेखा क्यों नही खींच पाते? क्या यह हमारी अक्षमता नही है? आखिर क्यों हम दूसरे की खींची हुई रेखा को छोटी करने या उसको मिटा डालने का प्रयास करते हैं? क्या यह हमारी हताशा नही है? क्या यह हमारी कुंठा के कारण तो नही है? आखिर क्यों हमें लगता है कि किसी के द्वारा फिल्म में दर्शाये गये चित्र हमारे हिंदू समाज के ऋषि मुनियों साधुओं द्वारा किये गये महान कार्यों को मटियामेट कर देंगे? आखिर क्यों हमारा आचरण समाज को यह बताने मे असफल रहता है कि यह फिल्म साधुओं का गलत चित्रण करती है? और ऐसा भी हम क्यों सोचने लगे हैं कि लोग जो इस फिल्म को देखेंगे तो वह हमारे साधु समाज से द्वेष करना आरंभ कर देंगे? क्या हमारा विश्वास डगमगाया? क्या विरोध का यह तरीका साधु समाज के प्रति लोगों मे सम्मान को जागृत कर देगा? चालीस लोग इकट्ठा हो कर चार सौ लोगों को फिल्म देखने से रोक देते हैं, और अपेक्षा रखते हैं कि वह चार सौ लोग हिंदू धर्म के समर्थक हो जायेंगे, क्या ऐसा संभव है? क्या विरोध करने से धर्म की उन्नति होती है या धर्म का आचरण करने से धर्म की उन्नति होगी? हमारी संस्कृति हमारे आचरण मे होगी तो कौन परास्त कर सकेगा?
यह हमारी ही अक्षमता है कि हम अपने ही साधु समाज का चित्रण सही प्रकार से नही कर पा रहे हैं, फिर वो चाहे किसी रामपाल या निर्मल बाबा के ढोंग के बारे मे समाज को सावधान करना हो, या फिर किसी बाबा रामदेव जी, साध्वी ऋतंभरा जी, श्री श्री रवि शंकर जी, गंगोत्री मंदिर के पुरोहितों, विभिन्न संतों द्वारा चलाये जा रहे आरोग्य संस्थान, शिक्षण संस्थान, सामाजिक समरसता के कार्यक्रम के बारे मे समाज को जानकारी देनी हो। दोनो ही कार्यों मे हम अक्षम रहे। हम ना तो रामपाल के बारे मे समाज को जागृत कर सके, ना ही हम संतों द्वारा चलाये जा रहे प्रकल्पों के बारे मे समाज को बता सके। और ऐसी स्थिति में जब कोई पीके जैसी फिल्म आती है तो अपने संतों द्वारा किये गये कार्यों को बता कर तार्किक रूप से विरोध करने के स्थान पर हम उग्र हो जाते हैं। हताशा में अपनी बडी रेखा खींचने की चिंता को छोड़ कर अपनी सारी ऊर्जा छोटी रेखाओं को मिटाने मे लगाने लगते हैं, और जब कोई दूसरा अपने आर्थिक कारणों से ऐसा करता है तो हम उस से द्वेष करते हैं उससे घॄणा करते हैं। आखिर क्यों हमारा समाज उन सब बातों से अन्जान रहता है जो विभिन्न धार्मिक गुरुओं और संस्थाओं द्वारा समाज कल्याण के लिये किये जा रहे हैं। हम उनका प्रचार करने के स्थान पर अपने विरोध का प्रचार कर रहे हैं, और अपेक्षा कर रहे हैं कि लोग हमारे साथ आयें और सत्ता इस को प्रतिबंधित कर दे। क्या हम हिंदुत्व को समझ सके हैं? क्या हिंदुत्व में दूसरे को अपने विचार प्रकट करने की मनाही है? हमने तो चार्वाक को भी ऋषि कहा जबकि यदि उसका प्रत्यक्षीकरण कोई अपने आचरण मे उतारे तो हम उसको पश्चिमी आचरण मान कर शायद उसका भी विरोध करें।
सिनेमा अपने आर्थिक कारणों से चलता है, और उसके चलने का कारण लोगों का उसे देखने जाना है। यह भी निश्चित है कि उनको जाने से रोकना ठीक नही है, लेकिन क्या हम ऐसी जागृति नही ला सकते कि किस विषय पर फिल्म बनाना निदेशकों के लिये लाभप्रद हो सकता है? कुछ समय पूर्व चार साहिबजादे फिल्म बनी, क्या उस फिल्म ने इतना अधिक व्यापार किया? और यदि नही किया तो क्यों नही कर सकी? यदि इस प्रश्न का उत्तर हम ढूंढने मे सफल हुए तो हमें अपने विरोध करने के तरीकों का रास्ता भी मिल जायेगा। फिल्म व्यापार करने के उद्देश्य से बनती है, बन रही हैं, और इस लाभोन्माद के लालच में हमारे निदेशकों, अभिनेताओं को प्रयोग किया जाता है और वो होते हैं।
मैने यह नही कहा कि पीके फिल्म ठीक है, लेकिन दूरगामी प्रभावों की चिंता किये बिना कोई विरोध करना, लक्ष्यों की ओर जाने से भटकायेगा, और लक्ष्य प्राप्त करने के समय को बढा देगा। यदि चार साहिबजादे फिल्म चलती और ४०० करोड़ का व्यापार कर देती तो निश्चित रूप से ऐसी फिल्में बनने की बाढ लग जाती। हमको इस व्यवस्था को समझना होगा और उसके अनुसार ही अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। आने वाले समय में बेबी, हवाईजादे, शंभा जी फिल्म आ रही हैं, यदि यह फिल्में सफलतापूर्वक ४०० करोड़ का व्यापार करती हैं, तो यह निश्चित है कि सांस्कृतिक विरासत मे आयी कमियों की आड़ ले कर आस्थाओं का मजाक उड़ाने वाले फिल्म बनना भी बंद हो जायेंगी किंतु शर्त मात्र एक है कि वो फिल्में जो भारतीयता इतिहास, संस्कृति के उज्जवल पक्षों को दिखाये, उनका व्यापार सबसे अधिक होना चाहिये और इन सबमें हम यह ना भूल जायें कि रामपाल, निर्मल बाबा जैसों का विरोध करना भी हमारा ही कार्य है, यह किसी बाहर वाले के ऊपर नही छोड़ा जा सकता।
4 comments:
Bahut badiyaa likha hai
Purntah sehmat hu.
आप बहुत महान हैं , महान बने रहिये , 100 करोड़ का जनमानस न कभी आप जैसा महान बन पाया है ना कभी बन पायेगा , उनकी छोटी छोटी आस्थाओं पर प्रहार होगा तो उसे जैसा समझ पड़ेगा प्रहार करेगा , आप उसके प्रतिनिधि हैं तो आप उसकी भावनाओं की चिंता कीजिये ना की उसे ही नीचा दिखाने का प्रयास कीजिये !! किताबों में अच्छी लगती हैं ऐसी बातें , हर कोई हेडगेवार या बद्द्तवाल नहीं हो सकता !! गुरु घंटालों को भूल जाइए , पूरे लेख में आपने ये नहीं बताया की शिव के अपमान का विरोध कैसा होना चाहिए , होना भी चाहिए या नहीं ? की आप जैसा महान बन जाना चाहिए ?
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